(एक रहस्यमयी भयावह कथा)
बिहार के एक छोटे से गाँव कुरहारी के पास, पहाड़ियों के बीच एक पुरानी गुफा थी — जिसे लोग “अंधेरी गुफा” कहते थे। कोई नहीं जानता था कि वो कितनी गहरी है, पर इतना सबको मालूम था कि वहाँ से कभी कोई वापस नहीं आया… जो गया, वो गुम हो गया — जैसे ज़मीन ने निगल लिया हो।
गाँव के बुज़ुर्ग कहते थे कि उस गुफा में “चौधरी साहब” की आत्मा भटकती है — एक ज़मींदार जिसने सालों पहले अपने नौकरों को ज़िंदा दीवारों में चुनवा दिया था। लोग उस जगह को देवता का शाप मानते थे।
पहला अध्याय — चेतावनी की रात
एक दिन गाँव के तीन दोस्त — राजू, भीम, और सुरज — शाम को चाय पीते हुए उसी गुफा की बातें कर रहे थे।
“अरे, ये सब बूढ़ों की बातें हैं,” राजू ने कहा, “भूत-प्रेत कुछ नहीं होता। चलो कल चलते हैं देख के आते हैं।”
भीम हँसा, “जा ना, तेरा भूतिया स्वागत वहीं होगा।”
सुरज ने धीरे से कहा, “माँ ने बताया था कि पिछली बार जो लोग गए थे, वो लौटे ही नहीं...”
लेकिन राजू जिद्दी था।
“डरपोक मत बनो। कल दोपहर हम तीनों चलेंगे। अगर कुछ नहीं हुआ तो पूरे गाँव में मेरा नाम मशहूर हो जाएगा।”
तीनों ने हँसते हुए कसम खाई — “कल हम अंधेरी गुफा जाएंगे।”
पर उसी रात राजू के घर के बाहर एक बूढ़ी औरत आई — सफेद साड़ी में लिपटी, चेहरे पर कोई भाव नहीं।
धीरे से बोली — “मत जाना बेटा... जो वहाँ गया, उसने फिर दिन का उजाला नहीं देखा...”
राजू ने हँसते हुए दरवाज़ा बंद कर दिया।
दूसरा अध्याय — गुफा का द्वार
अगली दोपहर, तीनों दोस्त टॉर्च, रस्सी और माचिस लेकर चल पड़े। रास्ते में हवा अजीब तरह से चल रही थी — पेड़ झूम रहे थे जैसे किसी रहस्य को छुपा रहे हों।
गुफा तक पहुँचने में तीन घंटे लगे। सामने काले पत्थरों का विशाल मुंह था — जैसे ज़मीन खुद किसी को निगलने को तैयार हो।
भीम के हाथ काँप रहे थे।
“राजू, अब वापस चल, अच्छा नहीं लग रहा।”
राजू बोला — “अब आया हूँ तो अंदर देखे बिना नहीं जाऊँगा।”
टॉर्च की रोशनी में जैसे-जैसे वो अंदर बढ़े, हवा ठंडी और भारी होती गई।
दीवारों पर पुराने खून के निशान जैसे कुछ था, और फर्श पर टूटी हुई चूड़ियाँ पड़ी थीं।
सुरज फुसफुसाया, “ये सब यहाँ कैसे आया?”
राजू बोला, “किसी ने डराने के लिए रखा होगा।”
पर तभी… गुफा के अंदर से “साँ-साँ” की आवाज़ आई — जैसे कोई और भी था वहाँ।
तीसरा अध्याय — दीवारों की फुसफुसाहट
अंदर अँधेरा गहरा था। उन्होंने रस्सी बाँधकर आगे बढ़ना जारी रखा।
एक मोड़ पर राजू की टॉर्च झपकी — और उसने देखा दीवार पर किसी ने लाल अक्षरों में लिखा था —
“वापस लौट जा...”
भीम का दिल ज़ोर से धड़कने लगा।
“राजू, मज़ाक मत कर, किसने लिखा ये?”
राजू ने कहा, “मुझे क्या पता...”
तभी टॉर्च फिर झपकी — और अगले पल दीवारें खुद धीरे-धीरे हिलती नज़र आईं।
उनके कानों में एक धीमी आवाज़ गूँजने लगी —
“यहाँ कोई वापस नहीं जाता...”
सुरज ने डर के मारे चिल्लाया — “चलो बाहर निकलते हैं!”
पर जब उन्होंने मुड़कर देखा… रस्सी गायब थी।
वो रास्ता जहाँ से वो आए थे — अब एक बंद पत्थर की दीवार बन चुका था।
चौथा अध्याय — ज़िंदा गुफा
अब गुफा की हवा बदबूदार और सड़ी हुई थी। अंदर से कोई रोने की आवाज़ आ रही थी — किसी औरत की, जो दया की भीख माँग रही थी।
भीम काँपते हुए बोला — “कोई अंदर फँसा है!”
राजू ने टॉर्च फेंक दी और दीवार के पास गया।
दीवार से खून टपक रहा था... और उस खून में किसी के हाथ के निशान उभर रहे थे।
अचानक दीवार ने उसे पकड़ लिया।
राजू चीखा — “बचाओ!”
पर उसका चेहरा दीवार में धँस गया — जैसे पत्थर ने उसे निगल लिया हो।
भीम और सुरज पागल होकर भागे — पर गुफा का हर रास्ता अब घूम कर वहीं आ जाता था।
दीवारों पर अब तीन परछाइयाँ थीं — तीनों की ही... लेकिन एक परछाई ज़िंदा हिल रही थी।
Next part coming soon 🔜